1971 की जासूस सहमत: एक अनसुनी कहानी, जिसने भारत की जीत की नींव रखी
नई दिल्ली – 1971 में जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ा, तो दुनिया की नज़र दोनों सेनाओं के मोर्चे पर थी। लेकिन उसी समय, पाकिस्तान के भीतर एक भारतीय जासूस ऐसे ख़ामोशी से काम कर रही थी, जिसकी भूमिका युद्ध के नतीजे को बदलने में बेहद अहम रही।
इस महिला का नाम था सहमत । वह दिल्ली यूनिवर्सिटी की एक छात्रा थी, जो पढ़ाई के साथ-साथ शास्त्रीय संगीत सीख रही थी। लेकिन एक पारिवारिक ज़िम्मेदारी ने उसकी ज़िंदगी की दिशा हमेशा के लिए बदल दी।
पिता की आखिरी इच्छा बनी मिशन की शुरुआत
सहमत के पिता, जो खुद भारत की खुफिया एजेंसी R&AW के लिए काम कर चुके थे,और अब कैंसर से पीड़ित थे। उन्होंने अपनी बेटी से देश के लिए जासूसी करने का अनुरोध किया — एक ऐसा अनुरोध जिसे ठुकराना उसके लिए मुमकिन नहीं था।
सहमत को सबसे पहले मानव चौधरी ने ट्रेनिंग दी, जिनका कोड नेम ‘मीर’ था और जो उस समय R&AW के प्रमुख थे। इसके बाद उसकी शादी एक पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी, इकबाल सैयद से कर दी गई। यह शादी ही उसका कवर थी। वह पाकिस्तान पहुंची, जहां उसे न केवल एक पत्नी की भूमिका निभानी थी, बल्कि भारत के लिए जासूसी भी करनी थी।
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युद्ध से पहले की सबसे अहम सूचना
1971 में जब युद्ध की आशंका गहराने लगी, तब सहमत को पता चला कि पाकिस्तान की नौसेना ने PNS Ghazi पनडुब्बी को भारत के INS Vikrant को निशाना बनाने भेजा है। उसने यह सूचना तुरंत भारत पहुंचाई। भारत ने इस पर तेज़ी से प्रतिक्रिया दी और PNS Ghazi को बंगाल की खाड़ी में डुबो दिया। यह एक बड़ी सैन्य सफलता थी जिसने युद्ध के परिणाम को प्रभावित किया।
युद्ध के बाद की खामोशी और आत्मग्लानि
युद्ध के बाद सहमत भारत लौटी। हालांकि उसने एक अहम सैन्य मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम दिया था, लेकिन उसके मन में युद्ध के दौरान देखे गए खून-खराबे की टीस रह गई। उसने समाजसेवा को अपनी ज़िंदगी बना लिया और पंजाब के मलेरकोटला में महिलाओं और बच्चों की मदद में जीवन समर्पित कर दिया।
2018 में जब उसकी मृत्यु हुई, तो स्थानीय लोग एक समाजसेविका के रूप में उसे याद कर रहे थे। लेकिन उसका बेटा जानता था कि वह एक गुमनाम नायिका थी — एक ऐसी महिला जिसने देश की सुरक्षा के लिए अपनी पहचान, निजी जीवन और मन की शांति सब कुछ दांव पर लगा दिया।
सहमत की कहानी यह साबित करती है कि इतिहास के कुछ सबसे महत्वपूर्ण युद्ध, सिर्फ बंदूकों से नहीं, बल्कि एकांत में किए गए साहसिक फैसलों और बलिदानों से जीते जाते हैं।