क्यों 1994 में भारत ने अपनी सामरिक बढ़त को खुद कमज़ोर किया? जानिए 1994 के उस फैसले से कैसे हिल गई थी देश की सुरक्षा!
New Delhi – एक ऐसे दौर में जब भारत को अपनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए कड़ा रुख अपनाने की ज़रूरत थी, उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने एक ऐसा फैसला लिया जिसने भारतीय सेना की रणनीतिक ताकत को कमजोर कर दिया था। साल 1994 में, तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान के साथ एक समझौता किया, जो आज राष्ट्रीय सुरक्षा के नजरिए से सवालों के घेरे में है।
क्या था यह समझौता?
यह समझौता 6 अप्रैल 1991 को साइन हुआ और 19 अगस्त 1992 को प्रभावी हुआ। लेकिन इसे आधिकारिक रूप से संयुक्त राष्ट्र में 15 दिसंबर 1994 को दर्ज किया गया। समझौते के अनुसार, भारत और पाकिस्तान को एक-दूसरे को किसी भी बड़ी सैन्य गतिविधि, मिलिट्री एक्सरसाइज़, ट्रूप मूवमेंट, या डिफेंस लॉजिस्टिक्स तैनाती के बारे में पहले से सूचना देनी होगी – वह भी कम से कम 15 दिन पहले।
इसमें यह भी तय किया गया कि भारत अपनी सीमा के पास कोर लेवल या डिवीजन लेवल की सैन्य तैनातियों और अभ्यासों के बारे में पाकिस्तान को सूचना देगा। यह शर्तें भारत की रक्षा नीति के आत्मनिर्भर और सामरिक सिद्धांतों के ठीक खिलाफ थीं।
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क्या 1994 का यह समझौता भारत की सैन्य रणनीति पर भारी पड़ा?
पुलिस और खुफिया एजेंसियों से जुड़े वरिष्ठ अधिकारियों का मानना है कि 1994 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस समझौते ने भारतीय सेना की रणनीतिक स्वतंत्रता को गंभीर रूप से सीमित कर दिया था। इस समझौते के लागू होने के बाद भारत को हर कोर-लेवल या डिवीजन-लेवल सैन्य अभ्यास, बड़ी सैनिक तैनाती, या लॉजिस्टिक मूवमेंट से पहले पाकिस्तान को कम-से-कम 15 दिन पूर्व सूचना देनी अनिवार्य हो गई थीं।
यह नियम केवल आधिकारिक सूचना तक सीमित नहीं था, बल्कि इसके तहत सैनिक गतिविधियों की तारीख, स्थान, भाग लेने वाली यूनिट्स, और लॉजिस्टिक डिटेल्स तक साझा करनी होती थीं। इसका सीधा असर भारतीय सेना की स्ट्रैटेजिक ऑपरेशनल गोपनीयता पर पड़ा।
सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि युद्ध या संघर्ष की स्थिति में ‘सरप्राइज़ फैक्टर’ किसी भी सैन्य सफलता की कुंजी होता है। लेकिन इस समझौते के कारण भारतीय सेना कोई भी बड़ा मूवमेंट अचानक नहीं कर सकती थी। इससे केवल रणनीतिक लाभ ही नहीं गया, बल्कि सुरक्षा जोखिम भी बढ़ गए क्योंकि पाकिस्तान को पहले से हमारी गतिविधियों की जानकारी मिल जाती थी।
इसके अलावा, भारत की ट्रूप मोबिलिटी स्पीड भी प्रभावित हुई। जहां सामान्य हालात में सेना कुछ ही दिनों में सीमा के पास अपनी तैनाती कर सकती थी, वहीं समझौते के तहत पहले से सूचना देकर उसे अपनी ही तैयारियों को धीमा करना पड़ा। ऐसे में यह समझौता एक रणनीतिक अवरोध बन गया।
अब कांग्रेस को देना होगा जवाब
विपक्ष अब खुलकर कांग्रेस से सवाल कर रहा है। यह पूछा जा रहा है कि 1994 में किस दबाव में या किस सोच के तहत भारत ने पाकिस्तान को इतने संवेदनशील सैनिक मूवमेंट्स की सूचना देने की सहमति दी? क्या इससे भारतीय सेना का मनोबल प्रभावित नहीं हुआ था?
भाजपा नेताओं का कहना है कि कांग्रेस की ये नीति “रक्षा से पहले संवाद” की थी, जबकि वास्तविकता में पाकिस्तान उस समय भी घुसपैठ और आतंकवाद को बढ़ावा दे रहा था। कांग्रेस को जनता को बताना चाहिए कि यह समझौता क्यों हुआ और आज उसकी प्रासंगिकता क्या है?
राष्ट्रीय सुरक्षा कोई सौदेबाज़ी नहीं होती।
अब समय आ गया है कि भारत आत्मनिर्भर रक्षा नीति की दिशा में आगे बढ़े और अपने पुराने फैसलों की समीक्षा करे। यह भी ज़रूरी है कि जनता को पूरी जानकारी दी जाए कि कौन-से फैसले भारत की सामरिक ताकत को कमजोर करते हैं और क्यों।
यह मुद्दा केवल इतिहास नहीं, बल्कि भविष्य की सुरक्षा नीति का आधार है। अब विपक्ष को जवाब देना होगा – क्यों भारत को अपने ही सैनिक अभ्यासों के लिए दुश्मन देश को पहले से सूचना देनी पड़ी?